गर्मी-ए-ख़ूँ उलझे लगी आख़िरी मुंजमिद पहर से देखिए अब गुज़रते हैं हम किस क़यामत के शब-ए-शहर से यूँ लगे दर्द-बख़्शीदा की इब्तिदा भी इक इंतिहा संग चाटे लब-ए-इश्तिहा प्यास बुझती नहीं ज़हर से मुंतज़िर आँख के देस में कोई छुट्टी भी आया नहीं कौन आफ़िय्यत-ए-दोस्ताँ लाएगा दूसरे शहर से मेरे अंदर की ना-पुख़्तगी जिस्म बाहर के भी ढह गई घर के घर ज़ेर-ए-आब आ गए इक शिगाफ़ी हुई नहर से मेरी राय में 'इक़बाल' वो नस्ल दुनिया में है और नहीं जिस ने बख़्शा न कुछ वक़्त को जिस ने पाया न कुछ दहर से