ग़ुबार-ए-वक़्त में अब किस को खो रही हूँ मैं ये बारिशों का है मौसम कि रो रही हूँ मैं ये चाँद पूरा था बे-इख़्तियार घटने लगा ये क्या मक़ाम है कम-उम्र हो रही हूँ मैं इस अब्र-ए-बाराँ में मंज़र बरसने लगते हैं बरस रही है घटा बाल धो रही हूँ मैं मैं गर्द-बाद का इक सर-फिरा बगूला थी ख़लाएँ ओढ़ के रू-पोश हो रही हूँ मैं ये शाम वक़्त से पहले छुपा न दे सूरज सुनहरी धूप में चुनरी भिगो रही हूँ मैं उदास ओस में गुम-गश्ता आँसुओं की कसक लरज़ती काँपती माला पिरो रही हूँ मैं ख़ला में खो गईं बातें हँसी की आवाज़ें सुख़न-शिकस्ता हूँ अल्फ़ाज़ खो रही हूँ मैं मैं जी रही हूँ या जीने का वहम है मुझ को न-जाने जाग रही हूँ कि सो रही हूँ मैं ये ज़र्द शाम जो सूरज गँवाए बैठी है 'सहर' सितारा-ए-अफ़्लाक हो रही हूँ मैं