कभी शुऊ'र कभी दिल कभी सुख़न महके कहो वो शे'र कि दुनिया-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न महके अता हमें भी जो हो जाए 'मीर' का अंदाज़ तो लफ़्ज़ लफ़्ज़ से मा'नी का पैरहन महके रहूँ ख़मोश तो फूलों को नींद आ जाए पढ़ूँ जो शे'र तो लफ़्ज़ों का बाँकपन महके लरज़ते होंटों की वो गुफ़्तुगू तो याद नहीं बस इतना याद है बरसों लब-ओ-दहन महके दबी हुई है जो सदियों से ग़म की चिंगारी भड़क उठे तो ख़यालों की अंजुमन महके कभी तो ऐसा ज़माना भी आए ऐ 'गौहर' मोहब्बतों की फ़ज़ा से मिरा वतन महके