ग़ुंचा-ए-दिल कि बिखरता भी दिखाई न दिया ऐसा बिखरा कि इशारा भी दिखाई न दिया किस के हम-राह नज़र आता था तन्हा तन्हा किस से बछड़ा हूँ कि तन्हा भी दिखाई न दिया रौशनी की वो चका-चौंध थी आँखों में कि हम शहर से निकले तो सहरा भी दिखाई न दिया सर्द-मेहरी-ए-ज़माना की सुलगती हुई आग क्या बला थी कि धुआँ सा भी दिखाई न दिया उन किताबों पे तो हम ने भी किया है कुछ काम जिन में इक हर्फ़-ए-तमन्ना भी दिखाई न दिया बस चले थे कि ग़ुबार-ए-रह-ए-मंज़िल उट्ठा चेहरे वो बदले कि अपना भी दिखाई न दिया रात भर ख़ून के दरिया में नहाया ख़ुर्शीद दामन-ए-सुब्ह पे धब्बा भी दिखाई न दिया सारा आलम था कि तारीक नज़र आता था और 'महशर' को धुँदलका भी दिखाई न दिया