ग़ुरूर-ज़ात कहीं नक़्द-ए-जाँ में छोड़ आए वो आग फिर उसी आतिश-फ़िशाँ में छोड़ आए अज़ाब-ए-हिज्र से तेरे विसाल-लम्हों तक हम अपनी ज़ात कहीं दरमियाँ में छोड़ आए तमाम उम्र फिर उस की तलाश में भटके वो इक सुकून जो कच्चे मकाँ में छोड़ आए न रास आया उसे मेरी ज़ात का ठहराव तो ख़ुद को इस लिए बर्क़-ए-तपाँ में छोड़ आए चुरा के वक़्त से अपने अज़ाब के लम्हे ब-शक्ल-ए-संग यद-ए-मेहरबाँ में छोड़ आए हुआ न यूँ कभी एहसास-ए-शिद्दत-ए-हिज्राँ बदन की धूप तिरे जिस्म-ओ-जाँ में छोड़ आए तिरी निगाह करे अब मदार की तअईन सितारा अपना तिरी कहकशाँ में छोड़ आए गुज़रता है कफ़-ए-सफ़्फ़ाक से या फिर सर से मआल-ए-गुल तो यद-ए-बाग़बाँ में छोड़ आए वहीं थी दर्ज हिकायात-ए-ना-सबूरी-ए-दिल वो एक मोड़ जो तुम दास्ताँ में छोड़ आए