गया जब भी तो सर-ता-पा गया मैं जहाँ अक्सर नहीं आया गया मैं हवा आ जाएगी दर बंद कर लो दिए की चीख़ से घबरा गया मैं जमेगी काई इक मुद्दत में उस पर यही कुछ सोच कर रक्खा गया मैं तआ'रुफ़ रौशनी का हो गया जब तो इस के बाद बुलवाया गया मैं हर इक रस्ता तिरे घर का था रस्ता ये सब कुछ देख कर उक्ता गया मैं दलाएल अक़्ल इस्तिदलाल, ईजाद मगर इक इश्क़ से टकरा गया मैं जो अपनी अक़्ल पर नाज़ाँ बहुत था उसे दिल तक तो ले कर आ गया मैं इबादत फिर दुआ और फिर इबादत ख़ुदा से किस क़दर माँगा गया मैं वहाँ इक सब्र था बे-इंतिहा सब्र यहाँ इक दिल जिसे तड़पा गया मैं यहाँ आवाज़ थी हैरत वहाँ थी सो घर से चल पड़ा चलता गया मैं