दिल का कब ए'तिबार था मुझ को बाग़ ये रेगज़ार था मुझ को जब अजब सा क़रार था उस पल जाने क्यों इज़्तिरार था मुझ को सोचना तुझ को ग़म-ज़दा रह कर किस क़दर ग़म-गुसार था मुझ को तेज़ बारिश से उन चराग़ों का भीगना साज़गार था मुझ को ज़ुल्फ़ सर की तो इक सफ़र दरपेश सामने पेचदार था मुझ को नींद में डगमगा रहा था रात रात ऐसा ख़ुमार था मुझ को हालत-ए-जज़्ब में तो तेरा हिजाब आग था और शरार था मुझ को बिखरी बिखरी थकन के बाद का ख़्वाब हाए क्या शानदार था मुझ को