गया वो दौर हवाओं से तंग होने का कोई मलाल नहीं अपने संग होने का बसा हुआ है निगाहों में एक ही मंज़र बड़ा ही शौक़ था अक्कास रंग होने का वही जहान-ए-हवादिस वही खुली आँखें क़रीब-ए-मर्ग है एहसास दंग होने का सदा-ए-साज़ जो भाती है दो-घड़ी दिल का गुमान तार-ए-नफ़स पे है चंग होने का मुझे किसी से भी 'अमजद' गिला नहीं मैं तो तलाश करता हूँ मौक़ा दबंग होने का खड़े रहो न मुक़ाबिल हर एक के 'अमजद' कि इस तरह से तो ख़तरा है जंग होने का