ग़ारत-गरों के पास है क्या अपने पास क्या ठानी है सिद्क़-ए-दिल से तो ख़ौफ़-ओ-हिरास क्या लहजा ही तल्ख़ हो तो ज़बाँ की मिठास क्या आँखें बरहना हों तो बदन पर लिबास क्या कासों में ले के शाद हैं जो ज़िंदगी की भीक इन दस्त-बस्ता लोगों का होश-ओ-हवास क्या सब्ज़ा नहीं हैं फ़हम-ओ-फ़रासत की चादरें कल भी यही ज़मीन थी उगती थी घास क्या हाथों में हाथ दीजे दुहाई न दीजिए तंज़ीम-ए-अम्न से हैं अभी ना-शनास क्या शोहरत नज़र में हो तो बलाग़त से क्या ग़रज़ सरक़े का ग़म नहीं तो ग़म-ए-इल्तिबास क्या है तालियों की गूँज में तौक़ीर-ए-हर्फ़-ए-ग़म इरशाद करने वाले करें इल्तिमास क्या अब तो चमन में काँटों को आए तो आए रहम बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-रसीदा को फूलों से आस किया सहरा में भी है आप के रुख़ पर शगुफ़्तगी हैं याद पोखरे वो अकूल-ओ-परास क्या बुज़दिल हैं आप वर्ना समुंदर खँगालते मोती भी चल के आता है साहिल के पास क्या दरिया से अब्र बन के सब उड़ जाएँ नेकियाँ है 'सरफ़राज़' ये भी क़रीन-ए-क़यास क्या