घबरा कर अफ़्लाक की दहशत-गर्दी से हम ने ख़ुद को तोड़ दिया बेदर्दी से जब ख़ुद को हर तौर बयाबाँ कर डाला तब जा कर बाज़ आए दश्त-नवर्दी से अब भी क्या कुछ कहने की गुंजाइश है सब कुछ ज़ाहिर है चेहरे की ज़र्दी से हम इक बार भटक कर इतना भटके हैं अब तक डरते हैं आवारागर्दी से हम भी इश्क़ की पगडंडी से गुज़रे हैं वाक़िफ़ हैं पेच-ओ-ख़म की सर-दर्दी से