ग़ैर अपने हैं कब पराए हैं वक़्त पर मेरे काम आए हैं राह-ए-हस्ती में मेरे गाम-ब-गाम तेरी यादों के कितने साए हैं बाज़ औक़ात ये हुआ महसूस जितने अपने हैं सब पराए हैं हम ने बाँधा तसव्वुर-ए-मंज़िल जब क़दम रह में डगमगाए हैं एक तूफ़ान अश्क-ओ-आह में भी हम ब-सद अज़्म मुस्कुराए हैं उफ़ वो मौज-ए-हवा-ए-तूफ़ानी जिस ने जलते दिए बुझाए हैं जिस से हो इंदिमाल-ए-ज़ख़्म-ए-हयात हम वो दरमान ले के आए हैं आज के दौर में सियासत ने कैसे कैसे ये गुल खिलाए हैं ज़ीस्त की चिलचिलाती धूप में भी तेरी ज़ुल्फ़ों के ठंडे साए हैं उन से पूछे कोई बहा-ए-हयात दार को चूम कर जो आए हैं वक़्त ने जिन की याद दफ़ना दी मुझ को अक्सर वो याद आए हैं आज सरकार-ए-हुस्न में 'मग़मूम' हम भी चंद अश्क ले के आए हैं