ग़म-ए-फ़िराक़ को हम ख़ुश-गवार करते रहे तुम्हारे नाम से ज़िक्र-ए-बहार करते रहे ख़िरद का काम भी आशुफ़्ता-कार करते रहे ग़म-ए-हबीब-ओ-ग़म-ए-रोज़गार करते रहे किसी ने ख़ून से अपना चमन सजा भी लिया बहुत तो शिकवा-ए-लैल-ओ-नहार करते रहे तिरा सुलूक भी एहसान है मगर ऐ दोस्त यही सुलूक मिरे ग़म-गुसार करते रहे दिलों में याद की राहें भी आज सूनी हैं कल इंतिज़ार सर-ए-रहगुज़ार करते रहे दिलों में रह गई बे-नाम सी ख़लिश कोई तुझे भी पा के तिरा इंतिज़ार करते रहे हयात ढूँडने वाले अजल से क्या डरते इसी ज़मीन को बाग़-ओ-बहार करते रहे गुनह में ढाल दिए ज़ाहिदों के ख़्वाब-ए-हसीं अमल का रूप हमें ज़र-निगार करते रहे हमें जो याद भी आए हैं वो लब-ओ-रुख़्सार तो पहरों मिन्नत-ए-जाम-ओ-बहार करते रहे क़रार-ए-इश्क़ है 'सैफ़ी' वो जान-ए-महबूबी क़रार खो के जिसे बे-क़रार करते रहे