ग़म-ए-जानाँ अयाँ न हो जाए ज़िंदगी राएगाँ न हो जाए तू नज़र ही न आ ख़ुदा के लिए फिर तमन्ना जवाँ न हो जाए दिल जो जलता है तेरी फ़ुर्क़त में ये धुआँ आसमाँ न हो जाए मिट न जाए ये चाशनी ग़म की हम पे वो मेहरबाँ न हो जाए गुफ़्तुगू में हो एहतियात तुझे राज़ दिल का अयाँ न हो जाए कर रहा है मुक़ाबला दुश्मन या ख़ुदा कामराँ न हो जाए क्यों हसीनों से मिलते हो 'नाज़ी' वो कहीं बद-गुमाँ न हो जाए