ग़म की धूप और ग़म के शजर बख़्श दे मुझ को मक़्तल की सब रहगुज़र बख़्श दे फेंक कर कोई पत्थर न मायूस हो दिल की शाख़ों में इतने समर बख़्श दे सारे चेहरे यहाँ आश्ना बन गए अजनबी शहर का अब सफ़र बख़्श दे अब चटानों में आबादियाँ ढल गईं मुझ को तेशा-गरी का हुनर बख़्श दे मुड़ के देखूँ तो पत्थर का बन जाऊँ मैं इक सदा ऐसी भी मो'तबर बख़्श दे रुत बदलते रफ़ीक़-ए-क़लम को मिरे इक मिरा ए'तिबार-ए-नज़र बख़्श दे काम आएँ जो ग़ैरों के मेरे सिवा इन दुआओं में मेरी असर बख़्श दे प्यास ही प्यास है जब मुक़द्दर मिरा कर्बला की मुझे दोपहर बख़्श दे