हवा-ए-तुंद के झोंके को आज़माऊँगा मैं इक दिए से हज़ारों दिए जलाऊँगा मैं शहर शहर सदा पर सदा उठाऊँगा गलीम-पोश-ए-ग़ज़ल हूँ ग़ज़ल सुनाऊँगा ये क़िस्त क़िस्त तबस्सुम सुलगते होंटों पर सजा के अब के भी मैं क़त्ल-गाह जाऊँगा असीर-ए-गुम्बद-ए-तन्हाई इतना याद रखो मैं बाज़गश्त नहीं हूँ कि लौट आऊँगा मैं धूप धूप चलूँगा ये दूसरों के लिए सड़क के दोनों तरफ़ पेड़ ही लगाऊँगा बहुत हक़ीर हूँ लेकिन अँधेरी रातों में मैं जुगनूओं की तरह रोज़ जगमगाउँगा ये कर्ब कर्ब कहानी ये दार दार सफ़र मैं अब के लौट के आऊँ तो फिर सुनाऊँगा मुझे ख़बर है कि हैं साँप इन सूराख़ों में मगर दोबारा मैं इन से डसा न जाऊँगा मैं लम्हा लम्हा सज़ाएँ तो काट लूँगा मगर हिसार-ए-अर्ज़-ए-सुख़न से निकल न पाऊँगा