ग़म में जो मसर्रत के पहलू निकल आते हैं हम लाख छुपाते हैं आँसू निकल आते हैं मीआ'द बढ़ाते हैं वो क़ैद-ए-मोहब्बत की हम बच के असीरान-ए-गेसू निकल आते हैं क्या रहरव-ए-हस्ती ने फिर राह-ए-तलब खो दी क्यों शब के अंधेरे में जुगनू निकल आते हैं जब भी तिरी ज़ुल्फ़ों का चर्चा कहीं होता है तख़्ईल के गोशे से बा-मू निकल आते हैं क्यों बरबत-ए-दिल छेड़ें ज़ख़्मों के गुलिस्ताँ में क्या जानिए क्या गुज़रे जादू निकल आते हैं 'साबिर' ग़म-ए-हस्ती में मायूस न हो जाएँ हर हाल में जीने के पहलू निकल आते हैं