ग़म-ओ-अंदोह का सीने में समुंदर ले कर जिए जाता हूँ मगर हाथ में साग़र ले कर ख़ुद-फ़रेबी के अंधेरे में उतर जाता हूँ ख़ुद को जब ढूँडता हूँ हाथ में पत्थर ले कर सामने आएगा वो जब भी पुकारूँ उस को अपने चेहरे पे मगर नूर की चादर ले कर एक अल्हड़ सी कोई याद भले वक़्तों की दिल के पनघट पे चली आती है गागर ले कर वक़्त भी हम से उलझ पड़ता है हम भी उस को रोज़ ललकारते हैं हाथ में साग़र ले कर हम फ़सादों में भी हमसाए से मिल आते हैं कभी पत्थर कभी भाला कभी ख़ंजर ले कर दावर-ए-हश्र से हम मिलने चलेंगे 'राहत' ताइर-ए-फ़िक्र का टूटा हुआ इक पर ले कर