दुख भी सहे अलम भी सहे रंज भी सहे फिर भी बशर ख़ुदा को ख़ुदा मानता रहे सब मुनहसिर बशर पे है वो किस तरह रहे दुख ज़िंदगी के हम ने तो हँस-खेल कर सहे दर आ गई है ज़ेहन-ए-बशर में ये सोच क्या दरिया सुखों का उस के ही घर की तरफ़ बहे आँगन का उस के पेड़ फलों से लदा भी हो साया भी उस का घर ही की दीवार तक रहे झेली हो जिस ने ज़िंदगी ले ले के तेरा नाम तुझ को अगर ख़ुदा न कहे वो तो क्या कहे 'राहत' मिलेंगे और भी कुछ क़द्र-दान-ए-ज़ीस्त देखा तो कीजे ख़ुद से भी हट कर गहे गहे