घर अता कर मकाँ से क्या हासिल सिर्फ़ वहम-ओ-गुमाँ से क्या हासिल बे-यक़ीनी ही बे-यक़ीनी है इस ज़मीन-ओ-ज़माँ से क्या हासिल सोच आगे बढ़े तो बात बने सिर्फ़ उम्र-ए-रवाँ से क्या हासिल दिल भी आसूदा चाहिए वर्ना दौलत-ए-बेकराँ से क्या हासिल एक चेहरा है काएनात मिरी सूरत-ए-दीगराँ से क्या हासिल जब ख़ुशी रूह की न साथ रही राहत-ए-जिस्म-ओ-जाँ से क्या हासिल दिल में जब जिंस-ए-आरज़ू ही नहीं सिर्फ़ ख़ाली दुकाँ से क्या हासिल अपने आ'माल को भी बदलो 'अदील' सिर्फ़ आह-ओ-फ़ुग़ाँ से क्या हासिल