घर है तिरा तू शौक़ से आने के लिए आ लेकिन मैं ये चाहूँगा न जाने के लिए आ ये रुख़ भी मोहब्बत का दिखाने के लिए आ आ मुझ से नज़र फेर के जाने के लिए आ मुद्दत से हूँ मैं तेरी मुलाक़ात का तालिब आ मुझ पे कोई ज़ुल्म ही ढाने के लिए आ पैमानों से पीते हैं पिएँ रिंद-ए-ख़राबात तू मुझ को निगाहों से पिलाने के लिए आ अर्बाब-ए-ख़िरद को है बड़ा नाज़ ख़िरद पर तू उन को भी दीवाना बनाने के लिए आ क्या मैं तिरे इस लुत्फ़ के क़ाबिल भी नहीं हूँ ऐ जान-ए-वफ़ा दिल ही दुखाने के लिए आ बर्दाश्त इसे इश्क़ की ग़ैरत न करेगी क्यूँ तुझ से कहूँ मैं कि ज़माने के लिए आ