घर के बड़े-बूढ़ों को यही कहते सुना है झुक झुक के जो मिलता है वही क़द में बड़ा है वो शख़्स हवा के किसी झोंके की तरह था अब हब्स बढ़ा है तो ये एहसास हुआ है लफ़्ज़ों के लिबादे में छुपी बात को समझो कब हम ने तिरी ज़ात से इंकार किया है इक बाब के खुलने से कई बाब हैं खुलते ये इल्म का नुक्ता मुझे इक दर से मिला है हर बात के पर्दे में कोई बात छुपी है हम ने तिरे तेवर से ये पहचान लिया है शायद कि कोई रब्त की सूरत निकल आए बे-रब्त इबारत को कई बार पढ़ा है इक ख़ौफ़ मुसल्लत है सभी बाग़ पे 'आसिफ़' फूलों ने भी ख़ुशबू को यहाँ क़ैद किया है