घर के दरवाज़े खुले हों चोर का खटका न हो बे-सर-ओ-सामान कोई शहर में ऐसा न हो तीरगी के ग़ार से बाहर निकल कर भी तो देख उस ज़मीं की कोख से सूरज कोई निकला न हो मैं कि गोया भी न हो पाया किसी दीवार से रह गया चुप सोच कर शायद कोई सुनता न हो दश्त में जाने से पहले अपने दिल में झाँक लो ख़ूबसूरत जिस्म के अंदर कोई कोई सहरा न हो एहतियातन देख ही लो दम-ब-ख़ुद क्यूँ रह गए तुम जिसे दीवार समझे हो वो दरवाज़ा न हो मैं कि दुनिया की हर इक शय में हुआ हूँ आश्कार देख तेरे आइने में भी मिरा चेहरा न हो मोड़ हैं हर हर क़दम पर किस से पूछें रास्ता फिर रहा हूँ शहर में जैसे कोई दीवाना हो ये अकेला-पन तो 'शाहिद' शहर का आशोब है या कोई तन्हा न हो या हर जगह वीराना हो