घर लौटते हैं जब भी कोई यार गँवा कर रो लेते हैं हम-ज़ाद को सीने से लगा कर किस को थी ख़बर इस में तड़ख़ जाएगा दिल भी हम ख़ुश थे बहुत सेहन में दीवार उठा कर कुछ और भी बढ़ जाती हैं हैरानियाँ दिल की सौ बार कहा है कि न आईना तका कर सावन में तो ख़ुद-सोज़ी भी हो जाती है नाकाम रेला सा गुज़र जाता है सब अज़्म बुझा कर मैं तर्क-ए-तअल्लुक़ पे भी आमादा हूँ लेकिन तू भी तो मिरा क़र्ज़-ए-ग़म-ए-हिज्र अदा कर ये तय है कि अब हम ने नहीं मिलना दोबारा ये बात मगर और किसी से न कहा कर इस कार-ए-मोहब्बत में तो होता है ख़सारा ऐ साहब-ए-ज़र तू ये तिजारत न क्या कर इक शहद सा घुलता चला जाता है दहन में लेता हूँ मैं जब साँस तिरी साँस मिला कर