गुलाब-ए-सुर्ख़ से आरास्ता दालान करना है फिर इक शाम-ए-विसाल-आगीं तुझे मेहमान करना है सिवा तेरे हर इक शय को हटा देना है मंज़र से और इस के ब'अद ख़ुद को बे-सर-ओ-सामान करना है मैं अपना दश्त अपने साथ ले कर घर से निकला हूँ फ़ना करना है ख़ुद को और अलल-ऐलान करना है वफ़ा के गोश्वारे में मिरा पहला ख़सारा तू तिरे ही नाम पर दर्ज आख़िरी नुक़सान करना है मैं तेरी बारगह में नक़्द-ए-जाँ तक नज़्र कर आया तो क्या कुछ और भी मुझ को अदा तावान करना है 'हसन' को बेवफ़ा कहने में दुख तो होगा तुझ को भी मगर ये कार-ए-मुश्किल तू ने मेरी जान करना है