घर मैं अपना शुमार चाहते हैं या'नी हम इख़्तियार चाहते हैं कुछ तो तय हो ज़र-ए-मुबादिल-ए-जाँ अब के हम कारोबार चाहते हैं अहद-ओ-मीसाक़ तोड़ने वाले फिर से सौदा उधार चाहते हैं इज़्ज़तें मुफ़्त में नहीं मिलतीं मर्तबे ए'तिबार चाहते हैं एक निस्बत तुम्हारे दर से रहे हम कहाँ इफ़्तिख़ार चाहते हैं कुछ तो औरंग-ए-जाँ की ज़ेब बढ़े एक कच्चा मज़ार चाहते हैं