किस बेवफ़ा से हाल कहा इज़्तिराब का ख़ाना-ख़राब उस दिल-ए-ख़ाना-ख़राब का क़ासिद की लाश आई है ख़त के जवाब में मंशा ये है जवाब न आए जवाब का सुन लोगे कोई दिन में कि कुम्हला गया ये फूल मुखड़ा था चाँद सा जो उरूस-ए-शबाब का क़ासिद के दिल में था कि ज़बानी भी कुछ कहे हाज़िर मगर मिज़ाज न पाया जनाब का तक़्सीर भी गुनाह भी कोई ख़ता भी हो कहना नहीं है हाल तुम्हारे इताब का अंदेशा है न रूह-ए-अमीं ले उड़ें 'जरीह' हूँ ख़ाक-ए-दर जनाब-ए-रिसालत-मआ'ब का