घर में नज़र आती नहीं ग़म-ख़्वार की सूरत तकते हैं पड़े हम दर-ओ-दीवार की सूरत छुपती ही नहीं इश्क़ के बीमार की सूरत कुछ और ही होती है इस आज़ाद की सूरत वा'दे पे बनाई तो है इक़रार की सूरत आँखों से अयाँ है मगर इंकार की सूरत जब वस्ल में कुछ होती है तकरार की सूरत दिल बीच में आ जाता है दीवार की सूरत करते हैं कुछ इस शान से वो वस्ल का वा'दा इक़रार की सूरत है न इंकार की सूरत की दीद की ख़्वाहिश तो वो मुँह फेर के बोले देखे तो कोई तालिब-ए-दीदार की सूरत 'महमूद' करम देख के ज़ाहिद ने सर-ए-हश्र ये चाहा कि बन जाऊँ गुनहगार की सूरत