घर से बे-पर्दा परी-रू जो निकल जाते हैं देखने वालों के ईमान बदल जाते हैं आसमाँ करता है जो चश्म-ए-इनायत अपनी रंग पतझड़ के बहारों में बदल जाते हैं अपनी नज़रों से जो गिरते हैं सँभलते ही नहीं ठोकरें खा के तो रस्ते में सँभल जाते हैं अम्न की शाख़ पे बैठे हुए पंछी सारे शर-पसंदों की शरारत से दहल जाते हैं ज़हर भर देता है लहजे में सुलगता मौसम गुफ़्तुगू करने के अंदाज़ बदल जाते हैं घेर लेता है हमें अब्र तिरी यादों का हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं हसरतें ख़ाक जो हो जाती हैं ऐ 'शाद' यहाँ पेट की आग में ईमान भी जल जाते हैं