मिट्टी का जिस्म और सफ़-ए-मो'तबर में है कितना बड़ा कमाल कफ़-ए-कूज़ा-गर में है ऐसी हवस छिपी हुई क़ल्ब-ए-बशर में है घर में हैं और वुसअत-ए-दुनिया नज़र में है शौक़-ए-सुख़न-वरी को मिटाता मैं किस तरह ये तो रची-बसी मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर में है मिल जाए बे-क़रार को लुत्फ़-ए-सुकून-ए-दिल ऐसी तो बस मिसाल ख़ुदा ही के घर में है तुम को तुम्हारी मंज़िल-ए-मक़्सूद मिल गई अपना तो कारवाँ अभी गर्द-ए-सफ़र में है पहनूँ मैं कैसे अतलस-ओ-कमख़्वाब के लिबास सूरज ग़ुरूब होने का मंज़र नज़र में है छू लेगा 'शाद' तू भी किसी रोज़ आसमाँ वो अज़्म और वो जोश तिरे बाल-ओ-पर में है