ग़रज़ नहीं मुझे इस से कि क्या दिया तू ने हज़ार-शुक्र कि जो कुछ दिया दिया तू ने ख़याल-ए-ख़िदमत-ए-ख़ल्क़-ए-ख़ुदा दिया तू ने मुझे हयात का मक़्सद बता दिया तू ने बशर ये कुछ न किया शर बढ़ा दिया तू ने जुदा जो दैर से का'बा बना दिया तू ने दोई का दिल से जो पर्दा उठा दिया तू ने हरम का दैर का झगड़ा मिटा दिया तू ने नजात पाई थी मर मर के क़ैद-ए-हस्ती से कि फिर हयात का नक़्शा जमा दिया तू ने कभी थीं आँखें तो आया नज़र न तू मुझ को हुईं जो बंद तो जल्वा दिखा दिया तू ने नहीं हवस मुझे दुनिया की जाह-ओ-हशमत की बहुत दिया दिल-ए-दर्द-आश्ना दिया तू ने जहाँ में आने से पहले था वाक़िफ़-ए-असरार जहाँ में आते ही सब कुछ भुला दिया तू ने जिन्हें यक़ीन है दुनिया की बे-सबाती का उन्हें अज़ाब-ए-गिराँ से बचा दिया तू ने कहाँ था होश मुझे पी के बादा-ए-हस्ती अजल बा-होश कहा और जगा दिया तू ने जो दिल के जान ख़रीदार था गोशा-ए-तुर्बत उसे भी गर्दिश-ए-दौराँ मिटा दिया तू ने मिरे सिवा तेरे जलवों को कोई क्या जाने तहय्युरात का आलम दिखा दिया तू ने वफ़ूर-ए-नूर से वहदत के बज़्म-ए-कसरत में हर एक ज़र्रा में जल्वा दिखा दिया तू ने वो फ़र्क़ अपने पराए में कुछ नहीं करते दिलों से जिन के मन-ओ-तू मिटा दिया तू ने बहार-ए-बे-खु़दी मम्नून है तिरा 'सूफ़ी' सुकून-ए-क़ल्ब का आलम दिखा दिया तू ने