ग़र्क़ सा वो हो गया इक आलम-ए-ख़ामोशी में जिस ने भी झाँका मिरे ख़्वाबों की लाइब्रेरी में टूट कर फिर से जुड़ा हूँ ख़ुद-बख़ुद मुद्दत के बाद अब न जाने क्या बना हूँ इस नौ बे-तरतीबी में हाल-ए-दिल किस को सुनाएँ जाएँ किस के पास हम ख़ुद को लूटा है हमी ने अपनी पहरे-दारी में हर कोई कहता फिरे है ये कहानी मेरी है नाम जब लिक्खा नहीं मैं ने सवानेह-उम्री में लहरें बन कर बह गए ग़म सब मिरे यक-दम कि जब मैं बरहना पाँव उतरा ठंडे ठंडे पानी में वो बुढ़ापा देख लेता है जवानी में सदा जिस का बचपन हो बसर कुँबे की ज़िम्मेदारी में पास बैठे रात भर 'मंसूर' मुझ को देखना लूटना उन को कभी आया न अफ़रातफ़री में