घटाएँ छाई हैं साग़र उठा ले जिस का जी चाहे ये मय-ख़ाना है क़िस्मत आज़मा ले जिस का जी चाहे मोहब्बत करने वालों का जहाँ में कौन होता है कोई अपना नहीं हम को सता ले जिस का जी चाहे ग़म-ए-दौराँ से बचना ज़िंदगी में ग़ैर-मुमकिन है ग़म-ए-जानाँ को सीने से लगा ले जिस का जी चाहे किसे मिलती है फ़ुर्सत उम्र-भर आँसू बहाने से कली की तरह दम-भर मुस्कुरा ले जिस का जी चाहे 'शजीअ' इस ज़िंदगी में हम तलबगार-ए-मोहब्बत हैं मोहब्बत से हमें अपना बना ले जिस का जी चाहे