घटाएँ घिरती हैं बिजली कड़क के गिरती है ये किस की प्यास है जो बे-क़रार फिरती है अजीब ख़ौफ़ की बस्ती है ये दिया ही नहीं हवा भी ख़्वाहिश-ए-दिल को छिपाए फिरती है नज़र न फेर नदामत को सैर होने दे ये बदली दिल में कहाँ रोज़ रोज़ घिरती है समेट लेती है हर शय को अपने पैकर में शबीह किस की है जो पुतलियों में फिरती है हवेली छोड़ने का वक़्त आ गया 'अरशद' सुतूँ लरज़ते हैं और छत की मिट्टी गिरती है