ग़लत नहीं है दिल-ए-सुल्ह-ख़ू जो बोलता है मगर ये हर्फ़-ए-बग़ावत लहू जो बोलता है मिरे उजड़ने की तकमील कब हुई जानाँ दरख़्त-ए-याद की टहनी पे तू जो बोलता है सर-सुकूत-ए-अदम किस के होंट हिलते हैं कोई तो है पस-ए-दीवार-ए-हू जो बोलता है ज़माने तेरी हक़ीक़त समझ में आती है हवा की थाप से ख़ाली सुबू जो बोलता है नफ़ासतों का क़रीना है तेरी ख़ामोशी मगर ये जेब का तार-ए-रफ़ू जो बोलता है इधर ये कान हैं क़हर-ए-ख़िज़ाँ जो सुनते हैं उधर वो पेड़ है सेहर-ए-नुमू जो बोलता है नफ़स के जाल में कब क़ैद हो सका 'अरशद' वो इक परिंद-ए-फ़ना कू-ब-कू जो बोलता है