ग़ज़ब है मुद्दई जो हो वही फिर मुद्दआ' ठहरे जो अपना दुश्मन-ए-दिल हो वही दिल की दवा ठहरे वो चाहें जिस क़दर जौर-ओ-जफ़ा हम पर करें लेकिन हमें तस्लीम लाज़िम है कि पाबंद-ए-रज़ा ठहरे ये दुनिया इक सरा है इस को आख़िर छोड़ जाना है अगर दो-चार दिन आकर यहाँ ठहरे तो क्या ठहरे कटे हैं सर बहुत तेग़-ए-जफ़ा से बे-गुनाही के अजब क्या है अगर क़ातिल का कूचा कर्बला ठहरे इधर आने को हैं वो और उधर वक़्त-ए-सफ़र आया अजब मुश्किल न वो आएँ न दम-भर को क़ज़ा ठहरे उसी को ज़िंदगी का लुत्फ़ है इस दहर-ए-फ़ानी में कि जो नज़दीक अच्छों के भला और बा-ख़ुदा ठहरे क़ियाम अपना हो इस मेहनत-सरा-अ-दहर में क्यूँकर जहाँ आफ़त ही आफ़त हो वहाँ 'आराम' क्या ठहरे