ग़ज़ल कहना अदाकारी नहीं है हमारा शौक़ बाज़ारी नहीं है करूँ सज्दा तिरे नक़्श-ए-क़दम पर अभी इतना जुनूँ तारी नहीं है किसी को सोचना तन्हाइयों में मोहब्बत है ये बीमारी नहीं है ग़म-ए-दिल को ग़ज़ल में ढालता हूँ तुम्ही कह दो ये फ़नकारी नहीं है अमीर-ए-शहर भी मुझ से ख़फ़ा है मिरा लहजा जो दरबारी नहीं है दिया है साथ हम ने हर क़दम पर मगर नाम-ए-वफ़ादारी नहीं है हमें हासिल है फ़िक्र-ओ-फ़न की दौलत ग़ज़ल कहना कोई भारी नहीं है 'फ़राज़' उन से ये मैं ने ज़ख़्म खाया जिन्हें आती दिल-आज़ारी नहीं है