घिरते बादल में तन्हाई कैसी लगती है मिलन का मौसम और जुदाई कैसी लगती है सूने मन के तारों से जब बातें होती हों दूजे आँगन की शहनाई कैसी लगती है दिल की चोट उभर आए और ज़ख़्म हरे हो जाएँ यादों की चलती पुर्वाई कैसी लगती है तुम को शहर-ए-ख़याल में रहना कैसा लगता है वो बस्ती जो दिल ने बसाई कैसी लगती है चढ़ते रूप की सूरज देवता और भी मान बढ़ाएँ धुँदली आँखों की बीनाई कैसी लगती है जग बीते जब जगमग ये दिल उस की जोत से था अब जो वो सूरत फिर याद आई कैसी लगती है दिल तो अपना भर भर आए निय्यत नहीं भरे उम्र का हासिल ऐसी कमाई कैसी लगती है बचपन और जवानी बूढ़ी उम्र के दर पे हैं तीनों ज़मानों की यकजाई कैसी लगती है 'बाक़र' सारी उम्र गुज़ारी कू-ए-मलामत में आख़िर उम्र की ये रुस्वाई कैसी लगती है