तुम्हारी मुंतज़िर यूँ तो हज़ारों घर बनाती हूँ वो रस्ता बनते जाते हैं कुछ इतने दर बनाती हूँ जो सारा दिन मिरे ख़्वाबों को रेज़ा रेज़ा करते हैं मैं उन लम्हों को सी कर रात का बिस्तर बनाती हूँ हमारे दौर में रक़्क़ासा के पाँव नहीं होते अधूरे जिस्म लिखती हूँ ख़मीदा सर बनाती हूँ समुंदर और साहिल प्यास की ज़िंदा अलामत हैं उन्हें मैं तिश्नगी की हद को भी छू कर बनाती हूँ मैं जज़्बों से तख़य्युल को निराली वुसअतें दे कर कभी धरती बिछाती हूँ कभी अम्बर बनाती हूँ मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है किसी से क्या कहूँ क्या ज़ात के अंदर बनाती हूँ