ग़ुरूर-ए-हुस्न-ओ-जफ़ा उस का सब शुनीदा था मगर वो सामने आया तो आबदीदा था चटान की तरह संग-लाख़ थी ज़मीं सारी मगर वो अख्वा तह-ए-संग नौ-दमीदा था वो शब की शब मिरे हर प्यार का जवाब रहा सहर हुई तो वही शख़्स कुछ कशीदा था मुझे क़ुबूल कि था बे-हिसाब उस का करम उसे भी इल्म कि दामन मिरा दरीदा था लिबास तन पे था ख़ूँ-गश्ता-ए-अना दिल था वो अब भी ज़िंदा तो था हाए सर-बुरीदा था ग़मों के साथ मोहब्बत के कितने पेचाँ थे ग़मों का साथ मगर दस्त-ए-ना-रसीदा था वो ए'तिबार-ए-हुनर साथ क्यों लिए फिरता कि उस की झोली में हर लफ़्ज़ ना-चशीदा था