गिल का वो रुख़ बहार के आग़ाज़ से उठा शो'ला सा अंदलीब की आवाज़ से उठा नौ-दस्त ज़ख़्मा-वर ने मिटा दी हद-ए-कमाल पर्दे जले तमाम धुआँ साज़ से उठा जैसे दुआ-ए-नीम-शबी का सुरूद हो इक शोर मय-कदे में इस अंदाज़ से उठा महज़र लिए जुनूँ में सवाल-ओ-जवाब का पर्दा सा एक दीदा-ए-ग़म्माज़ से उठा बाक़ी अभी है तंगी-ओ-वुसअत में एक फ़र्क़ इस को भी जुम्बिश-ए-लब-ए-ए'जाज़ से उठा इस्याँ सरिश्त-ओ-पाकी-ए-दामाँ की इक दलील क्या लुत्फ़ हुस्न-ए-तफ़रक़ाأपर्दाज़ से उठा वो शख़्स था मुरक़्क़ा-ए-मानी की एक ज़िद रंग-ए-हज़ार हुस्न-ए-जुनूँ-साज़ से उठा काँटे ज़मीं से और ज़ियादा हुए तुलूअ' इक मसअला बहार के आग़ाज़ से उठा बनती मता-ए-कश्फ़ तो क्या आइने की छूट लज़्ज़त ही कुछ इशारा-ए-हम-राज़ से उठा यारब तू लाज रख मिरे शौक़-ए-फ़ुज़ूल की दुनिया है नींद में मिरी आवाज़ से उठा इक मंज़र-ए-किनारा-ए-बाम और दे गया परतव सा कोई उस के दर-बाज़ से उठा मैं क्या कि मेरे बा'द भी जो लोग वाँ गए कोई न उस की अंजुमन-ए-नाज़ से उठा 'मदनी' क़फ़स में सुब्ह हुई और उस के बा'द दिल से धुआँ भी हसरत-ए-परवाज़ से उठा