ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़ शराब लाओ ग़म-ए-कुफ़्र-ओ-दीं दरोग़ दरोग़ हज़ार नख़्ल-ए-गुमाँ हैं अभी नुमूद-आसार अज़ल के दिन से है किश्त-ए-यक़ीं दरोग़ दरोग़ हदीस-ए-रश्क-ए-रक़ीबाँ हुई है जिस की नज़र मैं और उस की लगन हम-नशीं दरोग़ दरोग़ ख़ुद अपनी मस्ती-ए-पिन्हाँ से हाथ आता है शिकार-ए-नाफ़ा-ए-आहू-ए-चीं दरोग़ दरोग़ मैं और शिकवा-सराई-ए-ज़ख़्म-ए-बे-सबबी तू और दशना तह-ए-आस्तीं दरोग़ दरोग़ ज़रूर कोई नज़र है हरीफ़-ए-ख़ुद-निगरी वो और बज़्म में चीं-बर-जबीं दरोग़ दरोग़ मलूल कुछ ग़म-ए-बालीदगी से है वर्ना सिरिश्त-ए-गुल को मलाल-ए-ज़मीं दरोग़ दरोग़ सदाएँ दीं तुझे ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ने मक़्तल से तिरी गली में ख़बर तक नहीं दरोग़ दरोग़