गिरे हैं लफ़्ज़ वरक़ पे लहू लहू हो कर महाज़-ए-ज़ीस्त से लौटा हूँ सुरख़-रू हो कर उसी की दीद को अब रात दिन तड़पते हैं कि जिस से बात न की हम ने दू-बदू हो कर बुझा चराग़ है दिल का वगर्ना कैसे मुझे नज़र न आएगा वो मेरे चार सू हो कर हम अपने आप ही मुजरिम हैं अपने मुंसिफ़ भी ख़ुद ए'तिराफ़ करें अपने रू-ब-रू हो कर उस एक ख़्वाहिश-ए-दिल का पता चला न उसे जो दरमियाँ में रही सिर्फ़ गुफ़्तुगू हो कर मैं सब में रहते हुए किस तरह भुलाऊँ तुझे हर एक शख़्स ही मिलता है मुझ को तू हो कर अब उस के सामने जाते हुए भी डरता हूँ भुला दिया था जिसे महव-ए-जुस्तुजू हो कर हुई न जज़्ब ज़मीं में तो रात की बारिश फ़ज़ा में फैल गई ख़ाक रंग-ओ-बू हो कर मिटा जो आँख के शीशों से उस का अक्स 'नसीम' रगों में फैल गया ख़ूँ की आरज़ू हो कर