गिरते गिरते सँभल भी सकता है

गिरते गिरते सँभल भी सकता है
आदमी है बदल भी सकता है

कुछ भी क़ीमत नहीं सदाक़त की
खोटा सिक्का तो चल भी सकता है

मुझ से बातें करो न हँस हँस कर
देख कर कोई जल भी सकता है

ख़लिश-ए-दिल अज़ीज़ है मुझ को
वर्ना काँटा निकल भी सकता है

रोने वाले रहे ख़याल इस का
अश्क पलकों से ढल भी सकता है

अपना दामन सँभाल कर रखिए
कोई धब्बा मचल भी सकता है

अब मयस्सर कहाँ है वो लम्हा
जिस का ग़म हो कि टल भी सकता है

ग़म से लगती है चोट भी दिल पर
ग़म से इंसाँ बहल भी सकता है

आँख की रहगुज़र से हो के 'शमीम'
ख़्वाब सीने में पल भी सकता है


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