गो कम-सुख़न है भरी महफ़िलों में तन्हा है वो अपने आप से मिलता है बात करता है जो बात दोनों में होनी थी हो न पाई कभी सो घर में आज भी तन्हाइयों का डेरा है हर एक हाल में रहते हैं इश्क़ वाले ख़ुश विसाल-ओ-हिज्र के माबैन ऐसा रिश्ता है खड़ा है सहन में तन्हा जो टुंडमुंड दरख़्त न जाने इस को परिंदों पे क्या भरोसा है हमारे शहर की दीवार तो सलामत है अब इस के पार किसे फ़िक्र कौन करता है वो ख़ूब-रू है हसीं है वजीह है 'सीमा' वो मेरा यार बड़ा साँवला सलोना है