गो रात मिरी सुब्ह की महरम तो नहीं है सूरज से तिरा रंग-ए-हिना कम तो नहीं है कुछ ज़ख़्म ही खाएँ चलो कुछ गुल ही खिलाएँ हर-चंद बहाराँ का ये मौसम तो नहीं है चाहे वो किसी का हो लहू दामन-ए-गुल पर सय्याद ये कल रात की शबनम तो नहीं है इतनी भी हमें बंदिश-ए-ग़म कब थी गवारा पर्दे में तिरी काकुल-ए-पुर-ख़म तो नहीं है अब कारगह-ए-दहर में लगता है बहुत दिल ऐ दोस्त कहीं ये भी तिरा ग़म तो नहीं है सहरा में बगूला भी है 'मजरूह' सबा भी हम सा कोई आवारा-ए-आलम तो नहीं है