गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है शक्ल साया के मुझे साथ लगा लेता है गो मुलाक़ात नहीं आलम-ए-बेदारी में ख़्वाब में पर वो हमें साथ सुला लेता है अश्क को टुक बुन-ए-मिज़्गाँ में ठहरने दे दिला ये तिरा देख तो हाँ देख तो क्या लेता है राही-ए-मुल्क-ए-अदम से न कर इतनी काविश दम मुसाफ़िर ये तह-ए-नख़्ल ज़रा लेता है शीशा-ए-दिल में मिरे तेरे ख़याल-ए-ख़त से आ गया बाल है तो मोल उसे क्या लेता है ये मसल ऐ बुत-ए-मय-नोश सुनी है कि नहीं ले है बर्तन जो कोई उस को बजा लेता है तू वो है नाम-ए-ख़ुदा ऐ बुत-ए-काफ़िर कि तिरे ज़ाहिद-ए-गोशा-नशीं भी क़दम आ लेता है दिल पे तलवार सी कुछ लगती है जब ग़ैर को तू पास अबरू के इशारे से बुला लेता है क्यूँ न फूले दिल-ए-सद-चाक हमारा यारो गुल समझ कर वो उसे सर पे चढ़ा लेता है मौज-ए-दरिया तो कब अटखेली से यूँ चलती है पर तिरी कब्क-ए-दरी चाल उड़ा लेता है ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं को न छेड़ उस की दिला मान कहा अपने क्यूँ सर पे बला अहल-ए-ख़ता लेता है हूक सी उठती है कुछ दिल में मिरे आह 'नसीर' जब वो पहलू में रक़ीबों को बिठा लेता है