गुफ़्तुगू हम रू-ब-रू उन के न कर पाए बहुत यूँ तो आते थे सुख़न के हम को पैराए बहुत ज़िंदगी की धूप में जब दूर तक जाना पड़ा याद आए तेरी ज़ुल्फ़ों के घने साए बहुत हो सका फिर भी न उस के हुस्न-ए-रंगीं का बयाँ शहर-फ़िक्र-ओ-फ़न से तशबीहात हम लाए बहुत मैं ने इक हक़ बात कह दी थी ख़िलाफ़-ए-मस्लहत तब से सुनता हूँ ख़फ़ा हैं मेरे हम-साए बहुत उन को जाने किस ने भेजा था पयाम-ए-सैर-ए-गुल बाग़ में उड़ कर परिंदे दूर से आए बहुत तेरी क़िस्मत में तही-दामाँ ही रहना था 'क़दीर' वर्ना उस ने अंजुमन में फूल बरसाए बहुत