गुफ़्तुगू करते रहो रात गुज़र जाएगी

गुफ़्तुगू करते रहो रात गुज़र जाएगी
नूर की कोई किरन दिल में उतर जाएगी

नौजवाँ क़ौम का सरमाया हुआ करते हैं
तुम जो बिखरे तो मियाँ क़ौम बिखर जाएगी

ज़र्फ़ वाला किसी कम-ज़र्फ़ का एहसाँ ले कर
ज़िंदगी लाख जिए रूह तो मर जाएगी

मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़रती है गुज़र जाने दे
कम से कम क़ौम को बेदार तो कर जाएगी

अपनी मुँह ज़ोर तमन्नाओं पे क़ाबू कर लो
वर्ना सर से मियाँ दस्तार उतर जाएगी

अपनी शोहरत पे न इतराना कभी तू 'वासिक़'
ये नदी वो है जो इक रोज़ उतर जाएगी


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