गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार बिछड़ने वाले हैं यारों से यार आख़िरी बार दमक रहा है सहर की जबीं पे बोसा-ए-शब थपक रही है सबा रू-ए-यार आख़िरी बार ज़रा सी देर को है पत्तियों पे शीशा-ए-नम गुज़र रही है किरन आर-पार आख़िरी बार ये बात ख़ेमों के जलते दिए भी जानते थे कि हम को बुझना है तरतीब-वार आख़िरी बार किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है सफ़र कठिन है मगर एक बार आख़िरी बार सुमों से उड़ती हुई रेग-ए-दश्त ढूँढती है ग़ुबार होते हुए शहसवार आख़िरी बार