गुज़री जो रहगुज़र में उसे दरगुज़र किया और फिर ये तज़्किरा कभी जा कर न घर किया चश्म-ए-सलीक़ा-साज़ तो ख़ामोश ही रही रुख़्सत पे तेरी दिल ने बहुत शोर-ओ-शर किया आज़ुर्दगान-ए-हिज्र की वहशत अजीब है निकले न घर से और न आबाद घर किया बे-बर्ग-ओ-बार जिस्म था महरूम-ए-ए'तिबार सर-गर्मी-ए-सबा ने शजर को शजर किया अपने सिवा किसी को ये दिल मानता न था इस दिल को उस्तुवार तिरी आँख पर किया ये इश्क़ मरहला तो सफ़र-दर-सफ़र का है अब देखना है किस ने कहाँ तक सफ़र किया ऐसे कुशादा-दस्त कहाँ के थे हम 'रज़ी' शायद लिहाज़-ए-ज़हमत-ए-दरयूज़ा-गर किया